
जबलपुर समाचार : स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हम जब तिरंगे झंडे को नमन करते हैं, हमें यह याद रखना चाहिए कि यही तिरंगा झंडा एक समय जबलपुर में किए गए झंडा सत्याग्रह का प्रतीक बना था। यह सत्याग्रह स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था और हमारी संस्कारधानी के योगदान को उजागर करता है।
झंडा सत्याग्रह की शुरुआत
1922 में, जबलपुर में टाउन हॉल नगर पालिका का कार्यालय था। चौरी चौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया गया था, और कांग्रेस ने नई समितियों का गठन किया। इनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, और विट्ठलभाई पटेल शामिल थे। जब ये नेता जबलपुर पहुंचे, स्थानीय स्वतंत्रता सेनानियों ने टाउन हॉल में तिरंगा झंडा फहरा दिया। अंग्रेजी सरकार ने इस पर कड़ा विरोध जताया और तिरंगे झंडे को किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी भवनों पर फहराने पर प्रतिबंध लगा दिया।प्रतिबंध को चुनौती
स्वतंत्रता सेनानियों ने इस आदेश को चुनौती के रूप में लिया। जब कांग्रेस की दूसरी समिति, जिसमें डॉ. राजेंद्र प्रसाद, चक्रवर्ती गोपालाचारी, देवदास गांधी, और जमनालाल बजाज शामिल थे, जबलपुर आई, तो कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष तपस्वी सुंदरलाल ने डिप्टी कलेक्टर हैमिल्टन से तिरंगा फहराने की अनुमति मांगी। अनुमति दी गई, लेकिन शर्त यह रखी गई कि तिरंगे के साथ यूनियन जैक भी फहराना होगा। स्वतंत्रता सेनानियों ने इस शर्त को अस्वीकार कर दिया।18 मार्च 1923 की घटना
18 मार्च 1923 को, बालमुकुंद त्रिपाठी, सुभद्र कुमारी चौहान, तपस्वी सुंदरलाल और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने टाउन हॉल में दूसरी बार तिरंगा झंडा फहराया। अंग्रेजों ने इस पर लाठीचार्ज किया, जिसमें कई स्वतंत्रता सेनानी घायल हो गए। इस घटना की खबर जब नागपुर पहुंची, तो पूरे देश में झंडा सत्याग्रह की लहर दौड़ गई।हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के साहस और बलिदान को सलाम करते हुए, स्वतंत्रता दिवस पर हमें उनकी स्मृति को सम्मानित करने की प्रेरणा मिलती है। जब हम तिरंगे झंडे को देखते हैं, हमें याद रखना चाहिए कि यह सिर्फ एक झंडा नहीं, बल्कि स्वतंत्रता और संघर्ष का प्रतीक है।